
आज दीनदयाल उपाध्याय के विचार प्रासांगिक व आवश्यक
अन्त्योदय, एकात्म मानववाद, अन्त्योदय,स्व,चिति, शान्ति, सद्भावना के दर्पण
सांवरमल अग्रवाल
रांची। आज राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रही गलघोंटू मानवीय मूल्यों के विपरित स्वार्थ, बड़े बनने इच्छा, संस्कृति व संस्कृतियों को विलोपित कर सामाजिक ताने-बाने को समाप्त करने की आत्मघाती भावनाओं से शान्ति, सद्भावना, सौहार्द के वातावरण को दूषित करने के इस दौर में पंडीत दीनदयाल उपाध्याय जी एकात्म मानववाद, अन्त्योदय,स्व, चिति जैसे दर्शण को अपनाने की जरूरत है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की २५ सितंबर को जयंती है। इस अवसर पर उनके द्वारा प्रतिपादित दर्शणौ को अंगिकार कर के राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शान्ति,सदभाव, मानवता व मनुष्यो की रक्षा हो सकती है। हिंसा, कटुता, आपसी विद्वेष को उपाध्यक्ष जी दर्शनों से ही मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। उनके दर्शन स्पष्ट दिखाई देता है भारतीय संस्कृति उन के मूल्य जो व्यक्ति, समाज और संस्कृति, प्रकृति के बीच सामंजस्य पर जोर देता है या यूं कहें कि उनका एकान्त मानवदर्शन पश्चिमी भौतिकवाद, साम्यवाद के विपरित आत्मा, संस्कृति एवं मानवीय कल्याण को केन्द्र में रखता है। व्यक्ति के विकास के लिए प्रेरित करता है या कहें कि हर व्यक्ति,हर समाज, हर देश कुल मिलाकर पूरी दुनिया को इस भाव को स्वीकार कर ले तो विश्व में शांति, सदभाव, मानवता के प्रति प्यार मिल सकता है। भारत का दर्शन उदर+चीतनाम, अर्थात बैसुधैव कुटुम्ब कम की भावना सार्थक सिद्ध हो जायेगी। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की स्व की अवधारणा भारतीय दर्शन और एकांत मानव दर्शन के सिद्धांत पर आधारित है। उपाध्यक्ष जी के अनुसार स्व व्यक्ति की आंतरिक आत्मा है, सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है जो भारतीयों के मूल्यों से प्रत्येक मनुष्य को जोड़ता है। यह भाव केवल व्यक्तिगत स्वार्थ तक सीमित नहीं है बल्कि सामाजिक, राष्ट्रीय हितों के साथ सामंजस्य स्थापित करती है। पंडित जी का मानना था कि हर व्यक्ति का स्व समाज और राष्ट्र के साथ एकीकृत है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि व्यक्ति अपनी संस्कृति और आध्यात्मिक को अपनायें। दीनदयाल जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि स्व की व्यवस्था है वे कहते थे कि स्व का अर्थ आत्मसामन्यन, आत्मनिर्भर और आत्म साक्षात्कार। व्यक्तियों को स्वयं के कर्तव्यों, समाज के प्रति उत्तरदायित्व से जोड़ता है।स्व का मायने व्यक्ति को अपने धर्म, संस्कृति और मूल्यों के निष्ठा जो अपने राष्ट्र के उत्थान में योगदान दे। पंडित जी ने एक ओर अवधारणा को अगिकृत कर व्यवहारिक जीवन में उसके उतारने पर जोर दिया है, वह है “चिति दर्शन” उनके एकात्म मानवदर्शन का मूल आधार है जो राष्ट्र की आत्मा और सांस्कृतिक पहचान को परिभाषित करता है।जो राष्ट्र को उसके लक्ष्य, आदर्श और मिशन से जोड़ती हैं।हर राष्ट्र की अपनी चिति होती है जो उसके सांस्कृतिक और सामाजिक आर्थिक विशेषताओं को बनातीं है। चिति ही राष्ट्र की संस्थाओं व सामूहिक जीवन को निर्धारित करती है। उनके विचार थे कि देश, समाज के अन्तिम सीढ़ी खड़े व्यक्ति अर्थात समाज के गरीब, पिछड़े, लाचार, मजबूर हैं उसका जब तक उदय, विकास नहीं होगा कल्याण की किरण नहीं पहुंचेगी तब तक राज्यों का प्रयास सार्थक नहीं होगा। इस लिए अंत्योदय आधारित सरकारों को नीतियां न केवल बनानी बल्कि उनका सही ठग से कार्यान्वयन हो, अन्त्योदय का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी काअंत्योदय, एकात्म मानवदर्शन, स्व एवं चिति दर्शन केंद्रित दृष्टिकोण है यह विकास भारत, समस्त मानव कल्याण,सह अस्तित्व पर आधारित विश्व समाज के सौहार्द पूर्ण निर्माण के लक्ष्य को प्राप्त उपाध्याय जी के द्वारा दिये गये विचारों पर चल कर पाया जा सकता है।
(भाजपा झारखण्ड प्रदेश पूर्व मिडिया प्रभारी, झारखंड प्रदेश अग्रवाल सम्मेलन के उपाध्यक्ष हैं।)









